Brief History Of Maheshwari Community Since Its Origin Till Now | Maheshwari Samaj की उत्पत्ति के बाद से अबतक का संक्षिप्त इतिहास | Mahesh Navami | Maheshwari Vanshotpatti Diwas

Origin day of Maheshwari community means Maheshwari Vanshotpatti Diwas is known as Mahesh Navami. Mahesh Navami is a historical and religious festival of Maheshwari community. According to the Hindu calendar, this festival celebrated on the ninth day of Shukla Paksha in the month of Jyeshtha (May or June), every year. Mahesh Navami is the festival which Maheshwari peoples (Maheshwari Samaj) celebrates as the origin/foundation day of Maheshwari dynasty/Maheshwarism (Maheshwaritva), founded in 3133 BC.

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माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के बाद से अबतक का संक्षिप्त इतिहास -


ऋषियों के शाप से निष्प्राण हुए खण्डेलपुर राज्य के 72 क्षत्रिय उमरावों को युधिष्ठिर संवत 9, जेष्ठ शुक्ल नवमी के दिन (3133 ईसा पूर्व में) भगवान महेशजी और माता पार्वती की कृपा (वरदान) से शापमुक्त होकर नया जीवन मिला और एक नए वंश "माहेश्वरी" वंश की उत्पत्ति हुई। इसी घटना को 'माहेश्वरी वंशोत्पत्ति' के नाम से जाना जाता है। आसान भाषा में समझने के लिए इसे "माहेश्वरी समाज की स्थापना हुई" ऐसा कह सकते है। माहेश्वरी उत्पत्ति के परिणामस्वरूप जो 72 क्षत्रिय उमराव थे उनके माहेश्वरी बनने के साथ ही उनका पुराना वंश और क्षत्रिय वर्ण छूट गया, समाप्त हो गया और भगवान महेशजी की आज्ञा से नया "माहेश्वरी" वंश प्रारम्भ हुवा तथा वे वाणिज्य कर्म के लिए प्रवृत हुए। माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के पुरे वृतांत को जानकर मत्स्यनरेश ने खण्डेलपुर राज्य को मत्स्य में समाहित कर लिया। मत्स्यराज ने माहेश्वरीयों को आश्वत किया की उन्हें पूरा सहयोग प्राप्त रहेगा। माहेश्वरीयों ने अपने व्यापारकौशल, ईमानदारी और मेहनत के बलपर ना केवल मत्स्य में बल्कि कुरु, पांचाल, शूरसेन आदि देशों में व्यापार करके अपने लिए सम्मान और गौरव का स्थान प्राप्त किया।

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति (माहेश्वरी समाज की स्थापना) के साथ ही माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज को मार्गदर्शित करनेका दायित्व भगवान महेशजी ने "महर्षि पराशर (Maharshi Parashar), सारस्‍वत, ग्‍वाला, गौतम, श्रृंगी, दाधीच" इन छः (6) ऋषियों (गुरुओं) को सौपा। अपने दायित्व का सुचारु निर्वहन करने हेतु, माहेश्वरी वंश (समाज) को, समाजव्यवस्था को मजबूत, प्रगतिशील और मर्यादासम्पन्न (अनुशासित) बनाने के लिए माहेश्वरी गुरुओं ने, गुरुतत्व के रूप में "गुरुपीठ" की स्थापना की। भगवान महेशजी द्वारा सौपे गए दायित्व का निर्वहन करने के लिए गुरुओं ने एक व्यवस्था एवं प्रबंधन के निर्माण का ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया जिनमें गुरुपीठ की स्थापना प्रमुख कार्य है। इस माहेश्वरी गुरुपीठ के इष्ट देव 'महेश परिवार' (भगवान महेश, पार्वती, गणेश आदि...) है।

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माहेश्वरीयों की विशिष्ट पहचान हेतु समाज के प्रतिक-चिन्ह 'मोड़' (जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच ॐ (प्रणव) होता है) का और ध्वज का सृजन किया। ध्वज (केसरिया रंग के ध्वजा पर अंकित मोड़ का निशान) को "दिव्य ध्वज" कहा गया। दिव्यध्वज माहेश्वरी समाज की ध्वजा बनी। माहेश्वरी गुरुपीठ माहेश्वरीयों/माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक मार्गदर्शन केन्द्र माना जाता था। माहेश्वरीयों से सम्बन्धीत किसी भी आध्यात्मिक-सामाजिक विवाद पर गुरुपीठ द्वारा लिया/किया गया निर्णय अंतिम माना जाता था।

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माहेश्वरी समाज के गुरुपीठ (माहेश्वरी गुरुपीठ) के माध्यम से माहेश्वरी गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान एवं भक्ति करते हुए प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। गुरुओं ने कहा कि सदाचारपूर्वक परिश्रम करनेवाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरुओं के कहा की- ऐसा कोई वाणिज्य व्यापार नहीं है, जो माहेश्वरी समाज की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रतिकूल माना जाता हो। गुरुओं ने तो यहाँ तक कहा कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है। गुरुपीठ द्वारा समाज में प्रारंभ की गई ‘अनकोट’ (मुफ्त भोजन) प्रथा विश्वबन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की अन्यत्र न पाई जाने वाली मिसाल थी। गुरुओं ने नित्य प्रार्थना (पञ्चनमस्कार महामन्त्र), वंदना (महेश वंदना), नित्य अनकोट (अन्नदान), करसेवा, गो-ग्रास आदि नियम बनाकर समाज के लिए बहुत बड़ा ऐतिहासिक एवं शाश्वत कार्य किया।

माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय जो 72 उमराव थे उनके नये नाम पर एक-एक खाप बनी जो 72 खाप कहलाई। माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति एवं गुरुपीठ की स्थापना के पश्चात अगले कुछ समय में माहेश्वरी गुरुपीठ ने ओस्वाल जैन समाज से चार परिवारों को माहेश्वरी समाज में शामिल कर लिया जिससे "मंत्री, पोरवाल, देवपुरा और नौलखा" इन चार खापों का समावेश हुवा, जिससे माहेश्वरी खापों की संख्या 76 हुई। कुछ समयोपरांत अन्य एक समाज के एक परिवार को माहेश्वरीयों में मिला लिया और 77 वी खांप टावरी (तावरी) बनाई गयी। इस प्रकार आज माहेश्वरी समाज में कुल 77 खांपे है। आगे चलकर काम के कारण या गाव व बुजुर्गो के नाम से एक-एक खाप में कई नख (उपखांप) बन गई। वर्तमान समय में उपखांपों की संख्या 989 से भी अधिक है। लेकिन यह सभी खांपें और उनके नख (उपखांपे) मूलतः माहेश्वरी ही होने के कारन इन सबमें परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार है (*कुछ समयोपरांत सभी मूल 77 खांपों को 7 गोत्रों में बांटा गया। आगे चलकर गोत्रों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हुई है)। माहेश्वरी समाज की खाप और गोत्र व्यवस्थाएं अति प्राचीन हैं और आज भी इनका पालन हो रहा है। माहेश्वरी समाज में एक ही गोत्र के लडके और लड़की में विवाह नहीं होता है। समान गोत्र में विवाह-सम्बन्ध निषिद्ध है। माहेश्वरीयों की सामाजिक सरंचना बेजोड़ है। माहेश्वरीयों ने कुछ सर्वमान्य सामाजिक मापदण्ड स्वयं ही निर्धारित कर रखे हैं और इनके सामाजिक मूल्यों का निरंतर संस्तरण होता आ रहा है। 

फिर मध्यकाल में बहुतांश खापों के माहेश्वरी डीडवाना (वर्तमान समय में डीडवाना राजस्थान के नागौर जिले में आता है) में आकर बस गए। भारत के मध्यकालीन समय में डीडवाना शहर में बनी हुई व्यापारियों (माहेश्वरीयों) की हवेलियां आज भी इनकी भव्यता, इनके आकर्षक व कलात्मक नक्काशीदार पत्थर और कलात्मकता के कारन अनायास ही लोगों का ध्यान खीच लेती है। हजारों सालों का इतिहास अपने अन्दर समेटे डीडवाना शहर के परकोटे में बनी यह हवेलियां कभी शान, वैभवता व भव्यता का प्रतीक बनी हुई थीं। लेकिन बलदते दौर की अनदेखी और उपेक्षा के चलते यह हवेलियां अब वीरान हो चली हैं।

कालोपरांत 20 खाप के माहेश्वरी परिवार डीडवाना से धकगड़ (गुजरात) में जाकर बस गए। वहा का राजा दयालु, प्रजापालक और व्यापारियों के प्रति सम्मान रखने वाला था। इन्ही गुणों से प्रभावित हो कर और 12 खापो के माहेश्वरी भी वहा आकर बस गए। इस प्रकार 32 खापो के माहेश्वरी धकगड़ (गुजरात) में बस गए और व्यापार और कृषि करने लगे। तो वे धाकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे। समय व परिस्थिति के वशीभूत होकर धकगड़ के कुछ माहेश्वरियो को धकगड़ भी छोडना पड़ा और वे मध्य भारत में आष्टा के पास अवन्तिपुर बडोदिया ग्राम में विक्रम संवत 1200 (ई.स. 1143) के आस-पास आकर बस गए। वहाँ उनके द्वारा निर्मित भगवान महेशजी का मंदिर जिसका निर्माण विक्रम संवत 1262 (ई.स. 1205) में हुआ जो आज भी विद्यमान है एवं अतीत की यादो को ताज़ा करता है।

15 खापो के माहेश्वरी परिवार ग्राम काकरोली राजस्थान में बस गए तो वे काकड़ माहेश्वरी के नामसे पहचाने जाने लगे (एक विशेष घटना के कारन इन्होने घर त्याग करने के पहले संकल्प किया की वे हाथी दांत का चुडा व मोतीचूर की चुन्धरी काम में नहीं लावेंगे अतः आज भी काकड़ वाल्या माहेश्वरी मंगल कारज (विवाह) में इन चीजो का व्यवहार नहीं करते है)। स्थान-कालपरत्वे माहेश्वरी डिडू माहेश्‍वरी, मेडतवाल माहेश्‍वरी, पौकर माहेश्‍वरी, धाकड माहेश्‍वरी, थारी माहेश्वरी, खंडेलवाल माहेश्‍वरी, टुंकावाले माहेश्‍वरी आदि नामों से पहचाने जाने लगे, लेकिन मूलतः सभी एक ही होने के कारन इन सभी माहेश्वरीयों में परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार है। पुनः माहेश्वरी मध्य भारत और भारत के कई स्थानों पर जाकर व्यवसाय करने लगे।

देश दे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में माहेश्वरीयों का योगदान-

1857 से लेकर, 1947 में देश के स्वतंत्र होने तक स्वतंत्रता संग्राम में माहेश्वरीयों ने बढ़चढ़कर अपना योगदान दिया। देश के अलग अलग हिस्सों से स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रीय कृष्णदास सारडा, घनश्यामदास बिड़ला, जुगलकिशोर बिड़ला, सेठ दामोदरदास राठी, अर्जुनलाल सेठी, सेठ कन्हैलाल चितलान्गीया, ब्रजलाल बियानी, सेठ भगवानदास बागला, मगनलाल बागड़ी, हीरालाल कोठारी, शोभालाल गेलडा, कन्हैयालाल माहेश्वरी, स्वरुपचंद सोमानी, प्रसिद्ध साहित्यकार गोविन्ददास मालपानी आदि अनेको माहेश्वरीयों का नाम स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सम्मान के साथ दर्ज है।

भारत पर अंग्रेजों के राज में, जहाँ देश के कई औद्योगिक घरानों ने, कई सेठों ने अंग्रेजों के संरक्षण में अपने व्यापार का खूब प्रसार कर धन कमाया वहीँ देश में ऐसे कई औद्योगिक घराने थे, सेठ थे जिन्होंने अपने व्यापार, मीलों-कारखानों की कतई चिंता किये बगैर देश की आजादी के लिए सत्याग्रह जैसे शांतिपूर्ण तरीके से और क्रांतिकारी कार्यों के माध्यम से कार्य करनेवाले देशभक्तों का कंधे से कन्धा मिलाकर तन-मन-धन से साथ दिया जिसमें तिलकयुग के भामाशाह तथा माहेश्वरी समाज के राजा के नाम से प्रसिद्ध सेठ दामोदरदास राठी और बिर्ला उद्योग समूह के संस्थापक घनश्यामदास बिर्ला प्रमुख नाम है। इन्ही के साथ माहेश्वरी समाज के अनेको सेठो और उद्योगपतियों ने आजादी के आंदोलन के कार्यों में तन, मन और खास करके धन से अपना योगदान दिया। देश की आजादी से जुड़े अनेको ऐतिहासिक दस्तावेज बताते है, दस्तावेज इस बात के साक्षी है की कांग्रेस और महात्मा गांधी का सत्याग्रह आंदोलन हो या क्रांतिकारियों के क्रांति के कार्य हो; उन कार्यों के संचालन के लिए जरुरी आर्थिक सहायता-मदत करने में माहेश्वरी लोग, तत्कालीन माहेश्वरी औद्योगिक घराने शामिल रहे है। आजादी आंदोलन से जुड़े दस्तावेजों से पता चलता है की क्रांतिकारियों को अंग्रेजों की नजर से छुपाने के लिए कई माहेश्वरी औद्योगिक घराने उन क्रांतिकारियों को अपने कारखानों-मिलो में पनाह देते थे। कई बड़े क्रांतिकारियों के घर नियमित रूपसे, लगभग प्रतिमाह कुछ रुपये-पैसे भेजे जाते थे ताकि उनका घर-बार चल सकें और वे निश्चिन्त होकर देश की आजादी के लिए अपना कार्य कर सकें।

सेठ दामोदरदास राठी : आजादी की लड़ाई के आर्थिक स्तम्भ


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सेठ दामोदरदास राठी राजपूताना के सबसे पहले उद्योगपति थे। इन्होंने ही सन 1889 में ब्यावर (राजस्थान) में दी कृष्णा मिल्स लिमिटेड स्थापित की। इस मिल में रूई की धुनाई पुताई कताई और बुनाई आदि सब काम होते थे। कृष्णा मिल्स सन 1889 में स्थापित होने और सन 1893 में सूती वस्त्र के उत्पादन करने के कार्य में आ गई थी। अतः यह मिल राजपूताना में सबसे पहिली सूती वस्त्र की देशी पद्धति पर लगाई गई मिल थी। भारत के लगभग सभी प्रमुख नगरों में सेठ दामोदरदास राठी की दुकाने, जिनिंग फैक्ट्री व पे्रसेज थी।

आजादी के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहा ब्यावर: भारत में राष्ट्रीयता के जनक तथा वीर सावरकर के गुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा जो अपने क्रान्तिकारी विचारों व क्रियाकलापों के लिए मशहूर थे एवं कुछ काल के लिए मेवाड़ राज्य के दीवान भी रह चुके थे- सेठ दामोदरदास राठी के कृष्णा मिल्स के कार्य संचालन हेतु राठी के दिवान बनकर कुछ समय तक ब्यावर में रहे थे। वास्तव में बात यह थी की श्यामजी कृष्ण वर्मा जो एक बड़े क्रांतिकारी थे, अंग्रेजों की नजर से बचाकर-छुपाकर रखने के लिए ही उन्हें सेठ दामोदरदास राठी द्वारा कृष्णा मिल के एक कर्मचारी के रूपमें रखा गया था। इसी की आड़ में रहते हुए श्यामजी कृष्ण वर्मा ने वहां से देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी कार्य और गतिविधियों को चलाया। जिसने भारतवर्ष के स्वतन्त्रता संग्राम में अहम् एवं मुख्य भूमिका निभाई। इसीलिए आजादी के आंदोलन में ब्यावर का नाम स्वतंत्रता संग्राम की केन्द्रिय भूमिका निभाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए याद किया जाता है।

वीर सावरकर के गुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा व सेठ दामोदरदास राठी के कारण ही उस वक्त के राष्ट्रीय स्तर के देश भक्त ब्यावर आये जिनमें प्रमुख नाम है- क्रान्तिकारी संन्यासि स्वामी दयानन्द सरस्वती, सनातन धर्म के प्रणेता स्वामी प्रकाशानन्द, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द घोस, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, पण्डित मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, गोपालकृष्ण गोखले, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, गणेशशंकर विद्यार्थी व रास बिहारी बोस आदि। इस प्रकार ब्यावर का नाम स्वतन्त्रता संग्राम में भारत में शीर्ष स्थान पर रहा। इसका श्रेय तिलक युग के महाराणा प्रताप खरवा नरेश राव गोपालसिंह एवं तिलक युग के भामाशाह सेठ दामोदरदास राठी को जाता है (राव गोपालसिंह खरवा राजपुताना की खरवा रियासत के शासक (नरेश/राजा) थे। अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के आरोप में उन्हें टोडगढ़ दुर्ग में 4 वर्ष का कारावास दिया गया था)। इन दोनों के कारण ही भारत में ब्यावर की एक गौरवपूर्ण पहचान हो सकी।
  
सेठ दामोदरदास राठी के माध्यम से ही श्यामजी कृष्ण वर्मा का खरवा नरेश राष्ट्रवर राव गोपालसिंह से पहली बार परिचय हुआ। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने राव गोपालसिंह के रूप में प्रथमबार एक क्रांन्तिकारी वीर राजपूत व्यक्तित्व के दर्शन किये। आगे जब प्रमुख क्रान्तिकारी योगीराज अरविन्द घोष ब्यावर में श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिलने आये तो श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उनकी मुलाकात राव गोपालसिंह खरवा से कराई। इस तरह सेठ दामोदारदास राठी के माध्यम से कई प्रमुख क्रान्तिकारी आपस में मिले।

अंग्रेजों से लोहा लेने तैयार की आर्मी: तिलक युग के महाराणा प्रताप खरवा नरेश राव गोपालसिंह ने खरवा के दक्षिण में 6 किलोमीटर दूर श्यामगढ़ किले में सन 1913 में “विप्लवकारी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी आर्मी" के नाम से एक क्रांतिकारी संस्था बनाई। जहां क्रांतिकारियों काे प्रशिक्षण दिया जाता था। इस संस्था और प्रशिक्षण को तिलक युग के भामाशाह सेठ दामोदरदास राठी आर्थिक सहायता करते थे। इस तरह सेठ दामोदरदास राठी ने अपने व्यापार में आने वाले किसी भी तरह की जोखिम की परवाह किये बिना देश के स्वतन्त्रता आन्दोलन में तन-मन-धन से अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई। नमन है इस देशभक्त की देशभक्ति को। माहेश्वरीयों को गर्व है माहेश्वरी समाज में जन्मे इस सपूत पर !

स्वतंत्रता के बाद देश की आर्थिक-आद्योगिक तरक्की में माहेश्वरीयों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद, भारत का संविधान बनाने के लिए डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की अध्यक्षता में जो संविधान समिति बनाई गई थी, जिसने भारत का संविधान बनाया; उस संविधान समिति में भी माहेश्वरी समाज के लोगों को शामिल किया गया था, संविधान समिति में प्रतिनिधित्व दिया गया था। वर्तमान समय में भी व्यापार के साथ ही कला, साहित्य, शिक्षा, खेल, प्रशासनिक सेवा, राजनीती आदि सभी क्षेत्रों में माहेश्वरीयों ने अपना योगदान दिया है और समाज का नाम रोशन किया है। राजनीतिज्ञ श्याम जाजू, उद्योगपति आदित्य बिरला, भारतीय महिला क्रिकेट खिलाड़ी स्मृति मानधना, जाने-माने मोटिवेटर संदीप माहेश्वरी, साहित्यिक एवं चिंतक शरद गोपीदास बागड़ी, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरसी लाहोटी, बॉलीवुड सिंगर और समाजसेविका पलक मुछाल, समाजसेवी डॉ. अभय बंग और रानी बंग, फ्यूचर ग्रुप के फाउंडर किशोर बियानी, पद्मश्री राजश्री बिड़ला (बिर्ला), पद्मश्री बंसीलाल राठी, व्हिडिओकॉन उद्योग समूह के वेणुगोपाल धूत, मिस नेपाल-2017 निकिता चांडक (नेपाल), अमेरिका के ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी (यूएच) की चांसलर रेणू खटोड़ ---------------------------- आदि अनेको माहेश्वरी समाजजनों के नाम इस बात के साक्षी है।


बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में माहेश्वरी योगदान-

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पंडित मदनमोहन मालवीय ने 103 साल पहले 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की थी। इसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भी कहा जाता है। उन्होंने ई.स. 1904 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारम्भ किया, जब काशी नरेश 'महाराज प्रभुनारायण सिंह' की अध्यक्षता में संस्थापकों की प्रथम बैठक हुई। जनवरी, 1906 ई.स. में कुंभ मेले में महामना मालवीय ने त्रिवेणी संगम पर भारत भर से आई जनता के बीच अपने संकल्प को दोहराया। सन 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का कार्य पूर्ण हुवा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) को एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय होने का गौरव हासिल है। बीएचयू को "राष्ट्रीय महत्व का संस्थान" का दर्ज़ा प्राप्त है।

भारतवासियों में शिक्षा के प्रसार को लेकर दूरदृष्टि रखने वाले प्रख्यात शिक्षाविद महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना के योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें सन 2015 में (मरणोपरांत) भारत रत्न की उपाधि देकर सम्मानित किया। सन 2015 में जिन दो महान हस्तियों को भारत रत्न से नवाजा गया उनमें एक है महामना मालवीय और दूसरे है- भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। 

प्रख्यात शिक्षाविद महामना पंडित मालवीय के साथ ही सर्वपल्ली राधाकृष्णन और एनी बेसेंट ने भी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दस्तावेजों के अनुसार इस विश्वविद्यालय की स्थापना मे महामना मालवीय का योगदान केवल सामान्य संस्थापक सदस्य के रूप मे था, दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह और देश के कई दानदाताओं ने विश्वविद्यालय की स्थापना में आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था दान देकर की। इन सभी का योगदान भी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में उतना ही महत्वपूर्ण है। बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के स्थापनार्थ सहयोग के लिए सन 1912 में महामना मालवीय खुद मारवाड़ मुकुट, तिलकयुग के भामाशाह और माहेश्वरीयों के राजा के नाम से सुप्रसिद्ध सेठ दामोदरदास राठी से मिलने ब्यावर आये। महामना मालवीय के आने का प्रयोजन जानकर शिक्षा-प्रसारक व साहित्य सेवी सेठ दामोदरदास राठी ने बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय की स्थापना के लिए चांदी के 11000 कल्दार रूपयों की थैली भेंट की जिसका मुल्य आज के हिसाब से करीब रु. 10,00,00,00,000/- (एक हजार करोड़ रुपये) से ज्यादा है।

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एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय होने का गौरव रखनेवाले बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना में माहेश्वरी समाज का, माहेश्वरीयों का महत्वपूर्ण योगदान माहेश्वरीयों के लिए, माहेश्वरी समाज के लिए गौरव की बात है।

देश के पिछड़े लोगों और हरिजनों के उत्थान में माहेश्वरी योगदान-

माहेश्वरी समाज और माहेश्वरी लोग देश-दुनिया के सभी लोगों में ना सिर्फ समानता और एकसमान अधिकारों के पुरस्कर्ता रहे है, धार्मिक तथा जातिगत असमानता और छुवाछुत के विरोधी रहे है बल्कि इन दुखद परिस्थितियों को बदलने में तथा इनमें सुधार लाने में माहेश्वरीयों ने बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया है... देते रहे है... दे रहे है। जब जातिगत छुवाछुत के चलते हरिजनों (दलितों) को मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं था तब सन 1938 में उस समय के भारत के नामांकित उद्योगपति घनश्यामदास बिरला ने दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक भव्य और शानदार लक्ष्मी-नारायण मंदिर का निर्माण किया जिसे "बिर्ला मंदिर" के नाम से जाना जाता है। सन 1938 में बने इस मंदिर का उद्घाटन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया था और मंदिर से जुड़ी खास बात यह है कि इसके उद्घाटन के बाद इसमें सबसे पहले घनश्यामदास बिर्ला ने दलितों को प्रवेश कराया, हरिजनों को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश किया। घनश्यामदास बिर्ला ने उस समय कहा था की इस मंदिर के द्वार सदैव सभी के लिए खुले रहेंगे और इसमें जाति अथवा धर्म के नाम पर किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। यह घटना माहेश्वरी समाज के सिद्धांतों को दर्शाती है साथ ही माहेश्वरी संस्कृति की महानता को भी उजागर करती है।

दलितों-अछूतों के मन्दिर प्रवेश के लिए डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा नासिक (महाराष्ट्र) में कालाराम मन्दिर सत्याग्रह आन्दोलन 2 मार्च 1930 से चलाया गया था। यह करीब 6 साल तक चला किंतु राम के मन्दिर का दरवाजा दलितों के नहीं खुला (इसके बाद ही आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म का त्याग करने घोषणा कर दी थी)। डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा चलाया गया दलितों-अछूतों के मन्दिर प्रवेश आंदोलन असफल हुवा था। उसी समय, उसी दरम्यान माहेश्वरीयों द्वारा हरिजनों को सम्मान के साथ मंदिर में प्रवेश देना एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है (दुर्भाग्य से माहेश्वरी समाज के इतिहासकारों-साहित्यकारों ने माहेश्वरी इतिहास को लिखने की और कभी ध्यान ही नहीं दिया जिसके कारन से आज भी, अनेको माहेश्वरीयों को भी इस ऐतिहासिक घटना की जानकारी नहीं है)।

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Laxmi Narayan Temple (Birla Mandir), Delhi

इतना ही नहीं बल्कि दलितों (हरिजनों) के आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक उत्थान के लिए भी माहेश्वरी समाज ने और माहेश्वरीयों ने किया कार्य इतिहास के पन्नों में सुवर्ण अक्षरों से दर्ज है। हरिजनों के आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक उत्थान के लिए "हरिजन सेवक संघ" की स्थापना 30 सितम्बर 1932 को एक अखिल भारतीय संगठन के रूप में हुई थी जिसके प्रथम अध्यक्ष घनश्यामदास बिड़ला थे। पहले इस संगठन का नाम अस्पृश्यता निवारण संघ रखा गया था, जिसे 13 सितम्बर 1933 को हरिजन सेवक संघ नाम दिया गया। वर्तमान में भी यह हरिजन सेवक संघ कार्यरत है। अपने देश के पिछड़ों के उत्थान के लिए माहेश्वरीयों द्वारा किये गए ऐसे कार्य हम माहेश्वरीयों को ना सिर्फ अपनेआप पर, अपने समाज पर गर्व करने की अनुभूति देते है बल्कि हमारी युवा पीढ़ी को, हमारी आनेवाली पीढ़ियों को प्रेरणा देने का कार्य भी करते है।

अयोध्या राम मंदिर आंदोलन में माहेश्वरीयों का योगदान-

अयोध्या राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन में हिन्दुओं, रामभक्तों ने जो आंदोलन चलाया उसमें माहेश्वरीयों ने भी ना सिर्फ बढ़चढ़कर हिस्सा लिया बल्कि अपने जान की आहुतियाँ तक दी। कलकत्ता के 2 माहेश्वरी युवक राम कोठारी और शरद कोठारी इन 2 सगे भाइयों ने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने के आंदोलन में अपना बलिदान दे दिया।

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सन 1990 के अयोध्या राम मंदिर आंदोलन को लेकर अयोध्या चलो के आवाहन पर जहाँ लाखों रामभक्त अयोध्या पहुंचे थे वही किसी बड़े हंगामें की आशंका को लेकर बड़ी संख्या में पत्रकार भी अयोध्या पहुंचे थे। रामभक्त कारसेवकों पर गोलियां चलाने की घटना के समय अयोध्या के पत्रकार महेंद्र त्रिपाठी भी मौके पर मौजूद थे, वे इसके प्रत्यक्षदर्शी थे और उन्होंने तमाम ऐसे फोटो लिए थे जो देश के ही नहीं विदेशों के मिडिया के अखबारों की भी सुर्खियां बने। इस गोलीकांड के प्रत्यक्षदर्शी इन्ही पत्रकार महेंद्र त्रिपाठी के मुताबिक, 2 नवम्बर 1990 की सुबह अयोध्या के हनुमान गढ़ी मंदिर के सामने लाल कोठी के संकरी गली में भरे कारसेवकों पर तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश पर पुलिस ने गोलियां चला दी जिसमें कारसेवा करने आये इन कारसेवकों का नेतृत्व कर रहे कलकत्ता के राम कोठारी को गोली मार दी गई। पुलिस से भाई का शव उठाने की अनुमति लेकर शरद कोठारी ने जैसे ही "जय श्रीराम" का नारा लगाकर अपने भाई राम कोठारी का शव उठाया तो उसे भी पुलिसवालों ने गोली मार दी और मौके पर ही दोनों कोठारी भाइयों की मौत हो गई। कोठारी बंधुओं को मारने के बाद वहां उपस्थित साधु संतो और कारसेवकों पर भी पुलिस ने गोलियां चला दी जिसमें अनेको साधु संत और कारसेवक मारे गए। फिर अयोध्या के अलग अलग स्थानों पर जमा साधु संत और कारसेवकों पर भी पुलिस ने गोलियां चलाई थी।

आगे के घटनाक्रम में फिर गीता जयंती के शुभ दिन (6 दिसम्बर, 1992) को पुनः कारसेवा की तिथि निश्चित की गयी जिसमें आक्रोशित हो उठे कारसेवकों ने वहाँ के तीनों गुम्बद गिरा दिये और इसके बाद वहाँ विधिवत श्री रामलला को भी विराजित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद का जो केस चल रहा है उसमें यही "रामलला विराजमान" भी एक पक्षकार है। (कहा जाता है की ध्वस्त ढांचे की दीवारों से 5 फुट लंबी और 2.25  फुट चौड़ी एक पत्थर की एक शिला मिली। विशेषज्ञों ने बताया कि इस पत्थर की शिला पर बारहवीं सदी में संस्कृत में लिखीं 20 पंक्तियां उत्कीर्ण थीं जिसमें पहली पंक्ति की शुरुआत “ओम नम: शिवाय” से होती है। 15वीं, 17वीं और 19वीं पंक्तियां स्पष्ट तौर पर बताती हैं कि यह मंदिर “दशानन (रावण) के संहारक विष्णु हरि” को समर्पित है। मलबे से करीब ढाई सौ हिन्दू कलाकृतियां भी पाई गईं जो फिलहाल न्यायालय के नियंत्रण में हैं)।

6 दिसम्बर 1992 को भगवान श्रीराम के जन्मभूमि पर रामलला के विराजित होने से राम जन्मभूमि पर राम मंदिर के लिए बलिदान देनेवाले कारसेवकों का शौर्य सफल हुवा। इसलिए प्रतिवर्ष 6 दिसम्बर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके बजरंग दल आदि समवैचार‍िक संगठन शौर्य द‍िवस के रूप में मनाते है, सेल‍िब्रेट करते है। शौर्य दिवस के कार्यक्रम में मुख्य रूपसे सन 1990 के अयोध्या राम मंदिर आंदोलन में बलिदान देनेवाले प्रथम बलिदानी कोठारी बंधुओं की तस्वीर को रखकर प्रतीकात्मक रूपसे राम मंदिर के लिए अपनी जान का बलिदान देनेवाले तमाम बलिदानी कारसेवकों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।

2 नवम्बर 1990 को अयोध्या राम जन्मभूमि आंदोलन में शहीद हुए रामभक्त कारसेवकों की याद में, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए दिगंबर अखाड़ा प्रतिवर्ष के 2 नवम्बर को कोठारी बंधुओं की तस्वीरों के साथ "शहीद दिवस" के रूपमें मनाता है।

माहेश्वरी समाज की सर्वोच्च धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक प्रबंधन संस्था "माहेश्वरी अखाड़ा (दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा) ने रामभक्त अमर बलिदानी कोठारी बंधुओं को माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च सम्मान "माहेश्वरी रत्न" से नवाजा है। 2 नवम्बर 1990 को अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने के लिए हुए आंदोलन में अपनी जान का बलिदान देनेवाले कोठारी बंधुओं को, उनके बलिदान को हिन्दू समाज, तमाम रामभक्त और माहेश्वरी लोग कभी नहीं भूल सकते।

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सामाजिक संस्तरण के साथ ही माहेश्वरीयों ने अपने व्यापार-कौशल, मेहनत, ईमानदारी से वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में अपना परचम लहराया। माहेश्वरी लोग जहाँ भी, जिस प्रदेश में गये, वहाँ की भाषा सीखली, वहाँ के लोगों में घुलमिल गये, उनके सुख-दुःख में शामिल हुए। माहेश्वरीयों के सिद्धांत- "कमाना है दान-धर्म करने के लिए" के कारन वाणिज्य-व्यापार में हुई कमाई को माहेश्वरी समाज में मुनाफा नहीं बल्कि 'लाभ' कहा जाता है। वाणिज्य-व्यापार करते हुए 'सवाई' से ज्यादा लाभ नहीं कमाने का माहेश्वरी सिद्धांत रहा है। माहेश्वरीयों का यह सिद्धांत वाणिज्य-व्यापार में माहेश्वरीयों की शुचिता/सदाचरण को दर्शाता है जिसने माहेश्वरीयों को सबसे अलग, सबसे विशेष स्थान प्राप्त है। "सदाचार, दानशूरता, उदारता, औरों की भलाई के लिए तत्पर रहना" जैसे गुणों के कारण ही माहेश्वरी समाज ने पैसा भी कमाया और सर्वत्र चिकित्सालय, शिक्षालय, कुँए, बावड़ी, प्याऊ, धर्मशाला, अनाथालय, गौशालाओं का अम्बार लगा दिया जो इस समाज की देश भर में अपनी अलग पहचान बनाती है। विरासत में मिले अपने इन्ही गुणों के कारन आज पूरी दुनिया में ‘माहेश्वरी’ की एक अलग और गौरवमय पहचान है।

- प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक "माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार

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"माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास' की अधिक जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें > Maheshwari - Origin and brief History

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