समाजजन समझें Maheshwari Samaj का धार्मिक Symbol और माहेश्वरी समाज के 'संगठनों के Symbols' के बीच का फर्क/अंतर | Maheshwari Symbol | Mahesh Navami

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Maheshwari Peoples Understand The Difference Between 'The Religious Symbol Of Maheshwari Samaj' And The Symbols Of 'Social Organizations Of Maheshwari Samaj'


The Maheshwari community's holy symbol is called the Mod (मोड़). Mod is the Maheshwaris main symbol. Mod is a symbol of Maheshwari culture and identity. This is the sign of Maheshwaris.

Symbol/Logo of Maheshwari community Mod is very meaningful and enriched. It awakes our internal powers and internal energy by only see it. The moral sentence of Maheshwaris is "Sarve Bhavantu sukhinh" means not only for Maheshwaris but also think about all people. This symbol is a symbol of truth, love and justice, which shows the ideals of Maheshwaris and the way to life.

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माहेश्वरी समाज का प्रतिक चिन्ह है- मोड़ (Mod). मोड़, जिसमें एक त्रिशूल और त्रिशूल के बीच के पाते में एक वृत्त तथा वृत्त के बीच होता है. यह माहेश्वरी समाज का प्रतिक चिन्ह (Holy Symbol of Maheshwari community) है जिसका सृजन माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय (लगभग 5100 वर्ष पूर्व) भगवान महेशजी द्वारा बनाए गए माहेश्वरीयों के गुरुओं ने किया था.

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"मोड़' माहेश्वरी समाज का गौरव-चिन्ह है. Mod is the Maheshwaris main symbol. Mod is a symbol of Maheshwari culture and identity लेकिन इसकी जानकारी के अभाव में कुछ जगहों पर एक माहेश्वरी संगठन (संस्था) 'अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा' के सिंबॉल (कमल के फूल पर शिवपिंड) को ही माहेश्वरी समाज (Maheshwari community) का सिंबॉल समझकर उसका ही प्रयोग किया जाता है. माहेश्वरी समाज के मूल गौरव-चिन्ह 'मोड़' के जानकारी के अभाव में स्वतंत्र रूप से कार्य करनेवाले कई माहेश्वरी संगठन और संस्थाएं भी समाज का चिन्ह समझकर अखिल भारतीय माहेश्वरी महासभा इस संस्था के सिम्बॉल का ही इस्तेमाल करते हुए देखे जाते है.

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...इसे हम इस तरह से समझे की जैसे अशोक चक्र, तिरंगा यह चिन्ह समस्त भारत देश के गौरव-चिन्ह है और कमल, पंजा, झाड़ू, सायकल आदि चिन्ह सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के सिम्बॉल है, वैसे ही "मोड़" समस्त माहेश्वरी समाज का प्रतिक-चिन्ह है, गौरव-चिन्ह है और बाकि के चिन्ह जो है वो सिर्फ सामाजिक संगठनों (संस्थाओं) के सिम्बॉल है. समाजबंधुओं से निवेदन है की वे समाज के सिंबॉल और सामाजिक संगठनो-संस्थाओं के सिंबॉल के बिच के फर्क/अंतर को समझे.

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समाज और समाज के संगठन यह दो अलग अलग चीजे है. समाज जैसे माहेश्वरी समाज, जैन समाज, अग्रवाल समाज, राजपूत समाज आदि; और समाज के संगठन मतलब किसी समाजविशेष के लिए कार्य करनेवाला कुछ समाजबंधुओं का समूह (ग्रुप). संगठन बनते है, बंद होते है, फिर नये बनते है यह प्रक्रिया चलती रहती है लेकिन समाज अक्षय है, सतत कायम रहता है फिर समाज का कोई संगठन (संस्था) हो या ना हो. इसलिए समाज का सिंबॉल सर्वोपरि है, सर्वोच्च है. किसी भी 'सामाजिक संगठन' के सिंबॉल से "समाज" का सिंबॉल (Symbol of community) श्रेष्ठ होता है.

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माहेश्वरी निशान (Holy Maheshwari symbol) "मोड़" को पुरे देशभर में और विदेशों में बसे समाजबंधु सही प्रारूप में, एकसमान रूप में छाप सके, प्रिंट कर सकें इसलिए इस माहेश्वरी निशान / सिम्बॉल के प्रारूप (डिझाइन) को विकसित कर लिया गया है. कार्यक्रम पत्रिका, निमंत्रण पत्रिका, बैनर, टी-शर्ट, ध्वज (Flag), दुकान के बोर्ड, व्हिजिटिंग कार्ड आदि पर छापने हेतु इसकी png file को Download करने के लिए कृपया निचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करें (या अपने डिझायनर को इस लिंक से यह सिम्बॉल Download करकर Use करने के लिए कहिये). Link > Copyright free images of Maheshwari religious symbol for use by Maheshwari peoples

Maheshwari's Religious Symbol | As Jain's Symbol Is Ahimsa Hand Same As Maheshwari's Symbol Is Mod (मोड़) | Emblem Of Maheshwarism

जैसे की "अहिंसा हाथ" जैनों का सिम्बॉल है वैसे ही माहेश्वरीयों का सिम्बॉल है "मोड़"


Meaning and Importance of Maheshwari Symbol -


The Mod (मोड़) is the symbol of the Maheshwaris. Mod is a symbol of Maheshwari culture and identity. It is symbol of Maheshwarism. Maheshwari Emblem Mod is pride of the Maheshwaris. The Maheshwari community's holy symbol is called the Mod (मोड़). Mod is the Maheshwaris main symbol. When the Maheshwari community has been originated with the blessing of Lord Mahesh and Goddess Parvati, the preceptors (guruj) of Maheshwaris make this holy symbol by the advice of Lord Mahesha and Goddess Parvati. Mod is a symbol of Maheshwari culture and identity. This is the sign of Maheshwaris. According to the preceptors we can get divine energy by only the sight of this symbol. The presence of the Maheshwari symbol finishes the bad things and bad powers from our home, family, society and life. The sight of this divine symbol can rise the good luck of life.


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माहेश्वरी समाज के पवित्र धार्मिक प्रतीकचिन्ह (Religious symbol of Maheshwari community) को "मोड़" कहा जाता है, यह माहेश्वरीयों का मुख्य प्रतीक (main symbol) है। "मोड़" माहेश्वरी संस्कृति और पहचान का प्रतीक है। माहेश्वरी निशान "मोड़" समस्त समाजजनों का, हरएक माहेश्वरी व्यक्ति का प्रतीकचिन्ह (सिम्बॉल) है। यह माहेश्वरी समाज का निशान (प्रतीकचिन्ह) है। "मोड़" समस्त माहेश्वरी समाज का पहचान-चिन्ह (आइडेंटिटी ऑफ़ माहेश्वरी कम्युनिटी) है।

माहेश्वरी निशान का अर्थ - 

त्रिशूल धर्मरक्षा के लिए समर्पण का प्रतीक है। ”त्रिशुल” शस्त्र भी है और शास्त्र भी है। आततायियों के लिए यह एक शस्त्र है, तो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का यह एक अनिर्वचनीय शास्त्र भी है। त्रिशुल विविध तापों को नष्ट करने वाला एवं दुष्ट प्रवृत्ति का दमन करने वाला है। 'त्रिशूल' आदिशक्ति पार्वती माता का प्रतिक है। त्रिशूल का दाहिना पाता सत्य का, बाया पाता न्याय का और बिचका पाता प्रेम का प्रतिक भी माना जाता है। वृत्त के बिच का ॐ (प्रणव) स्वयं भगवान महेशजी का प्रतिक है, ॐ पवित्रता का प्रतीक है, ॐ अखिल ब्रम्हांड का प्रतीक है। सभी मंगल मंत्रों का मूलाधार ॐ है। परमात्मा के असंख्य रूप है उन सभी रूपों का समावेश ओंकार में हो जाता है। ॐ सगुण निर्गुण का समन्वय और एकाक्षर ब्रम्ह भी है। भगवदगीता में कहा है “ ओमित्येकाक्षरं ब्रम्ह”। माहेश्वरी समाज आस्तिक और प्रभुविश्वासी रहा है, इसी ईश्वर श्रध्दा का प्रतीक है ॐ। यह माहेश्वरीयों का यह पथप्रदर्शक, प्रेरक गौरवशाली निशान है। सत्य, प्रेम, न्याय का उद्घोषक यह माहेश्वरी निशान सचमुच बडा अर्थपूर्ण है।

माहेश्वरीयों का बोधवाक्य -

" सर्वे भवन्तु सुखिन: " यह माहेश्वरीयों का बोधवाक्य है 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' अर्थात केवल माहेश्वरीयों का ही नही बल्कि सर्वे (सभीके) सुख की कामना का यह सिद्धांत माहेश्वरी संस्कृति के विचारधारा की महानता को दर्शाता है

***हमारे इस अलौकिक 'माहेश्वरी निशान' का प्रचार-प्रसार हमें जितना हो उतना अधिकाअधिक करना चाहिए। इसे अपना facebook profile pic बनाइये, जहाँ-जहाँ हो सके वहाँ इसे छपाईए (विजिटिंग कार्ड, उदघाटन पत्रिका, वर्धापन दिन-पत्रिका, विवाह-पत्रिका, आदि)। घर में, दुकान में सर्वत्र लगाईए। हर उत्सव में हर कार्यक्रम में इससे प्रेरणा लिजिए।

माहेश्वरी निशान (Holy Maheshwari symbol) "मोड़" को पुरे देशभर में और विदेशों में बसे समाजबंधु सही प्रारूप में, एकसमान रूप में छाप सके, प्रिंट कर सकें इसलिए इस माहेश्वरी निशान / सिम्बॉल के प्रारूप (डिझाइन) को विकसित कर लिया गया है. कार्यक्रम पत्रिका, निमंत्रण पत्रिका, बैनर, टी-शर्ट, ध्वज (Flag), दुकान के बोर्ड, व्हिजिटिंग कार्ड आदि पर छापने हेतु इसकी png file को Download करने के लिए कृपया निचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करें (या अपने डिझायनर को इस लिंक से यह सिम्बॉल Download करकर Use करने के लिए कहिये). Link > File:Maheshwari Samaj Logo.png

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Brief Intro — Maheshacharya Premsukhanand Maheshwari | Peethadhipati Of Maheshwari Akhada | Maheshwari Akhara

महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज का संक्षिप्त परिचय

(In Hindi and English) 


Yogi Premsukhanand Maheshwari Maharaj is peethadhipati of the "Divyashakti Yogpeeth Akhara (which is known as Maheshwari Akhada, is famous)", the highest Gurupeeth of Maheshwari community, and hence he is "Maheshacharya". Maheshacharya is the supreme / highest Guru post of Maheshwari community. Yogi Premsukhanand Maheshwari is known not only as the Peethadhipati of Maheshwari Akhara and Maheshacharya but known also as the "patron" of Maheshwari community and Maheshwari culture; and he is also a researcher, writer and historian of the history of Maheshwari community.

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The book titled "Maheshwari Utpatti evam Itihas (Maheshwari – Origin and Brief History)" has been written by Yogi Premsukhanand Maheshwari. Providing a comprehensive view of Maheshwari history, philosophy and culture; the book is widely considered to be one of the finest modern works on Maheshwari history. Yogi Premsukhanand Maheshwari is one of the most renowned historians, researchers and authors in the Maheshwari community. He is best known for his outstanding contributions to research on origin of Maheshwari community and ancient Maheshwari history.

Maheshacharya Yogi Premsukhanand Maheshwari has successfully conducted about 150 yoga and health camps across India. He has conducted several one day (one and a half hour) seminars on the role of Yoga in further enhancing the intelligence of the students, which has also benefited the students in keeping themselves stress free.

The main objective of all the activities of Maheshcharya Yogi Premsukhanand Maheshwari Maharaj is to bind the people of Maheshwari community living in different areas of India in the thread of unity, and to restore the community to the highest peak of glory by giving meaning to the basic principle of Maheshwari Samaj “Sarve Bhavantu Sukhinah”. Yogi Premsukhanand Maheshwari is giving lectures on the subjects like conservation and promotion of Maheshwari culture, health, stress free life etc. Yogi Premsukhanand Maheshwari is continuously working for the propagation of Sanatan Dharma and Maheshwari culture, and the revival of Maheshwari community.

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See this link > Maheshacharya | Supreme Religious Guru Of Maheshwari Community | Peethadhipati - Maheshwari Akhada (Maheshwari Gurupeeth)

प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च गुरुपीठ "दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़ा (जो माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है)" के पीठाधिपति है, और इसलिए वे "महेशाचार्य" है। महेशाचार्य यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरुपद है। योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ना केवल माहेश्वरी अखाड़े के पीठाधिपति और महेशाचार्य के रूप में माहेश्वरी समाज और माहेश्वरी संस्कृति के "संरक्षक" के रूप में जाने जाते हैं बल्कि वे माहेश्वरी समाज के इतिहास के एक शोधकर्ता, लेखक और इतिहासकार भी हैं।

माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं संक्षिप्त इतिहास नामक पुस्तक प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखी गई है। यह पुस्तक माहेश्वरी इतिहास, दर्शन और संस्कृति का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है; इस पुस्तक को व्यापक रूप से माहेश्वरी इतिहास पर बेहतरीन आधुनिक कार्यों में से एक माना जाता है। महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज माहेश्वरी समाज के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और लेखकों में से एक हैं। उन्हें माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति और प्राचीन माहेश्वरी इतिहास पर शोध में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए जाना जाता है।

महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी ने भारतभर में लगभग 150 योग एवं स्वास्थ्य शिबिरों का सफलतापूर्वक सञ्चालन किया है। उन्होंने छात्रों / विद्यार्थियों की बुद्धिमत्ता को और अधिक निखारने में योग की भूमिका पर एक दिवसीय (देढ़ घंटा) के कई सेमिनार लिए है, जिससे छात्रों को खुदको तनावमुक्त रख सकने में भी लाभ मिला है।

प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी महाराज के सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसनेवाले माहेश्वरी समाजजनों को एकता के सूत्र में बांधकर माहेश्वरी समाज के मूल सिद्धांत "सर्वे भवन्तु सुखिनः" को सार्थ करते हुए समाज को गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पुनःस्थापित करना है। प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी, माहेश्वरी संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन, स्वास्थ्य, तनावमुक्त जीवन आदि विषयोंपर व्याख्यान देनेका कार्य कर रहे हैं। योगी प्रेमसुखानन्दजी लगातार सनातन धर्म और माहेश्वरी संस्कृति के प्रचार-प्रसार तथा माहेश्वरी समाज के पुनरुत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं।


महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी माहेश्वरी वंश (समाज) के सर्वोच्च धार्मिक पीठ / माहेश्वरी गुरुपीठ "माहेश्वरी अखाड़ा" के पीठाधिपति है। योगी प्रेमसुखानन्दजी महाराज ने हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में योग एवं ध्यान साधना की है। उन्होंने माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति एवं इतिहास पर गहन अध्ययन और शोध किया है। उन्होंने माहेश्वरी समाज के उत्पत्ति से लेकर अबतक के लगभग 5100 वर्ष के इतिहास पर संशोधन किया, उन्हें साक्ष्यों-संदर्भों-प्रमाणों-तर्कों-तत्थों पर परखा, घटनाओं की संगती लगाई और "माहेश्वरी - उत्पत्ति एवं इतिहास" के नाम से पुस्तक की रचना की, पुस्तक लिखी। योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित यह पुस्तक माहेश्वरी समाज के इतिहास के बारेमें अबतक लिखी गई पुस्तकों में सबसे ज्यादा प्रमाणित तथा विस्तृत जानकारी से युक्त पुस्तक मानी गई है। योगी प्रेमसुखानन्दजी के इस ऐतिहासिक कार्य के बदौलत माहेश्वरी समाजजन अब इस बात को जानते है की वे यह कीतवीं 'महेश नवमी' मना रहे है, माहेश्वरी समाज की वंशोत्पत्ति (उत्पत्ति/स्थापना) आज से ठीक कितने वर्ष पूर्व हुई थी। उनका यह कार्य, यह पुस्तक निश्चितरूपसे माहेश्वरी समाज की आनेवाली पीढ़ियों को माहेश्वरी संस्कृति, रीती-रिवाज और अपनी विरासत से जोड़े रखनेका कार्य करेगा। माहेश्वरी समाज की गौरवमयी विशिष्ठ पहचान को बनाये रखने का कार्य करेगा।

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महेशाचार्य योगी प्रेमसुखानन्दजी माहेश्वरी महाराज जी के सभी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसनेवाले माहेश्वरी समाजजनों को एकता के सूत्र में बांधकर माहेश्वरी समाज के मूल सिद्धांत "सर्वे भवन्तु सुखिनः" को सार्थ करते हुए समाज को गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पुनःस्थापित करना है माहेश्वरी समाज के संस्कृति और विशिष्ठ पहचान को कायम रखने तथा उत्तरोत्तर बुलंद करने के लिए योगी प्रेमसुखानन्द जी ने ही सर्वप्रथम यह संकल्पना रखीं की जहाँ जहाँ, जिन जिन शहरों में माहेश्वरी समाज के लोग बड़ी मात्रा में निवास करते है वहाँ "श्री महेश चौक" बनाये जाएँ, स्थापित किये जाएं जो की माहेश्वरी समाज की, माहेश्वरी गौरव की पहचान बनें। इसी संकल्पना को साकार करने का श्रीगणेशा (प्रारम्भ) करते हुए योगी प्रेमसुखानन्द जी ने वर्ष 1994 में अपनी जन्मभूमि बीड शहर (महाराष्ट्र) के विप्रनगर में देश-दुनिया के पहले "श्री महेश चौक" की स्थापना की। वर्तमान समय में देश के अनेको शहरों में स्थापित "महेश चौक" को देखकर हम माहेश्वरीजनों को गर्व की अनुभूति होती है लेकिन इस संकल्पना को रखने और इसे सर्वप्रथम क्रियान्वित करने का, देश-दुनिया का सबसे पहला "श्री महेश चौक" बनाने का ऐतिहासिक कार्य प्रेमसुखानन्दजी माहेश्वरी महाराज द्वारा ही संपन्न हुवा है।

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योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी जी ने मात्र 30 वर्ष की उम्र में हिमालय की पहाड़ियों में योग साधना की, अनेको योगियों से योग, ध्यान, ज्ञान और आशीर्वाद प्राप्त किया फिर उन्होंने रुख किया समाजसेवा की ओर। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अध्यात्म और समाज के लिए समर्पित किया है। उन्होंने समाज के लिए काम करने का संकल्प लेते हुए "माहेश्वरी अखाड़ा" की स्थापना की (देखें Link > क्या है माहेश्वरी अखाड़ा? जानिए माहेश्वरी अखाड़े के बारेमें...)। ई.स. 2008 में औपचारिक रूप से, एक अधिकारीक नाम 'दिव्यशक्ति योगपीठ अखाडा' के नाम से माहेश्वरी गुरुपीठ परंपरा को पुनर्स्थापित (Restore) किया। इसकी स्थापना माहेश्वरी समाज के सर्वोच्च आध्यात्मिक एवं सामाजिक प्रबंधन संस्था के रूप में की गई है। माहेश्वरी वंश (समाज) के इस अखाड़े की स्थापना के समय इसे दिव्यशक्ति योगपीठ अखाड़े के नाम से पंजीकृत किया गया था लेकिन यह माहेश्वरी अखाड़ा के नाम से प्रसिद्ध है। यह ट्रस्ट समाज हित के अनेक कार्य कर रहा है।

योगी प्रेमसुखानन्दजी भ्रूण-हत्या, जुवा और नशीले पदार्थो के सेवन को सबसे जघन्य अपराध मानते हैं और अपने सम्बोधन में सभी से प्रार्थना करते हैं कि ऐसा जघन्य अपराध न करें। विभक्त परिवार और समाज में एकता के अभाव को समाज के पतन का कारण मानते हैं। अच्छी संगत और अच्छे चरित्र को सबसे बड़ी सम्पदा मानते है। गो-सेवा को जीवन निर्माण का एक अंग मानते हैं और अपने व्याख्यानों (प्रवचनों) में इन सभी बातों पर विशेष जोर देते हैं। महाराज जी माहेश्वरी संस्कृति के संरक्षण-संवर्धन, स्वास्थ्य, तनावमुक्त जीवन आदि विषयोंपर देश-विदेशमें व्याख्यान देनेका कार्य कर रहे हैं। छात्रों की बुद्धिमत्ता को और अधिक निखारने में योग की भूमिका पर उन्होंने खास ध्यान देते हुए इसपर लम्बे समय तक अध्ययन किया है और "योगा फॉर स्टूडेंट्स ब्रेन डेव्हलपमेंट" के नाम से अनेको कार्यक्रम किये है। जनमानस को स्वास्थ्य के प्रति जागृत करने के लिए अनेको योग चिकित्सा शिबिरों का सञ्चालन किया है

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योगी प्रेमसुखानन्दजी 'भगवान महेशजी' को परमगुरु मानते है। उन्हें साधना में महामंडलेश्वर पायलट बाबा (जुना अखाडा), परमहंस निरंजनानंदजी सरस्वती (मुंगेर, बिहार) से मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त है। स्वामी अवधेशानंदजी गिरी, आचार्य किशोरजी व्यास उनके श्रद्धास्थान है।

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Mahesh Navami Katha | Mahesh Navami The Proud Day Of Maheshwaris | Maheshwari Samaj Ka Sthapana Diwas

माहेश्वरी समाज का उत्पत्ति दिवस अर्थात माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिवस को महेश नवमी के नाम से जाना जाता है। महेश नवमी माहेश्वरी समाज का एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक त्यौहार है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, यह त्योहार हर साल ज्येष्ठ (मई या जून) महीने में शुक्ल पक्ष के नौवें दिन मनाया जाता है। महेश नवमी त्योहार को माहेश्वरी लोग (माहेश्वरी समाज) 3133 ईसा पूर्व में स्थापित माहेश्वरी वंश के उत्पत्ति दिवस / माहेश्वरीत्व (Maheshwarism) के स्थापना दिवस के रूप में मनाते हैं।

माहेश्वरीयों का मानना ​​है कि माहेश्वरी परंपरा की स्थापना भगवान महेश (शिव) और देवी पार्वती ने 3133 ईसा पूर्व में भारत के राजस्थान क्षेत्र में की थी। माहेश्वरी मान्यताओं के अनुसार, भगवान महेश और देवी पार्वती (देवी महेश्वरी) माहेश्वरी समुदाय, माहेश्वरी परंपरा (माहेश्वरीत्व) के संस्थापक हैं। इसकी स्थापना महेश नवमी को हुई थी, इसलिए माहेश्वरी लोग माहेश्वरी समाज के उत्पत्ति दिवस को महेश नवमी के नाम से बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

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- माहेश्वरी वंशोत्पत्ति -


खंडेलपुर (इसे खंडेलानगर और खंडिल्ल के नाम से भी उल्लेखित किया जाता है) नामक राज्य में सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा खड्गलसेन राज्य करता था l इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांती से रहती थी l राजा धर्मावतार और प्रजाप्रेमी था, परन्तु राजा का कोई पुत्र नहीं था l खड्गलसेन इस बात को लेकर चिंतित रहता था कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। खड्गलसेन की चिंता को जानकर मत्स्यराज ने परामर्श दिया कि आप पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं, इससे पुत्र की प्राप्ति होगी। राजा खड्गलसेन ने मंत्रियों से मंत्रणा कर के धोसीगिरी से ऋषियों को ससम्मान आमंत्रित कर पुत्रेस्ठी यज्ञ कराया l पुत्रेष्टि यज्ञ के विधिपूर्वक पूर्ण होने पर यज्ञ से प्राप्त हवि को राजा खड्गलसेन और महारानी को प्रसादस्वरूप में भक्षण करने के लिए देते हुए ऋषियों ने आशीवाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा की तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना, अन्यथा आपकी अकाल मृत्यु होगी l कुछ समयोपरांत महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया l राजा ने पुत्र जन्म उत्सव बहुत ही हर्ष उल्लास से मनाया, उसका नाम सुजानसेन रखा l यथासमय उसकी शिक्षा प्रारम्भ की गई l थोड़े ही समय में वह राजकाज विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा l तथासमय सुजानसेन का विवाह चन्द्रावती के साथ हुवा l दैवयोग से एक जैन मुनि खंडेलपुर आए l कुवर सुजान उनसे बहुत प्रभावित हुवा l उसने अनेको जैन मंदिर बनवाएं और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया l जैनमत के प्रचार-प्रसार की धुन में वह भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी भगवती को माननेवाले, इनकी आराधना-उपासना करनेवाले आम प्रजाजनों को ही नहीं बल्कि ऋषि-मुनियों को भी प्रताड़ित करने लगा, उनपर अत्याचार करने लगा l

ऋषियों द्वारा कही बात के कारन सुजानसेन को उत्तर दिशा में जाने नहीं दिया जाता था लेकिन एक दिन राजकुवर सुजानसेन 72 उमरावो को लेकर हठपूर्वक जंगल में उत्तर दिशा की और ही गया l उत्तर दिशामें सूर्य कुंड के पास जाकर देखा की वहाँ महर्षि पराशर की अगुवाई में सारस्वत, ग्वाला, गौतम, श्रृंगी और दाधीच ऋषि यज्ञ कर रहे है, वेद ध्वनि बोल रहे है, यह देख वह आगबबुला हो गया और क्रोधित होकर बोला इस दिशा में ऋषि-मुनि शिव की भक्ति करते है, यज्ञ करते है इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे l उसने क्रोध में आकर उमरावों को आदेश दिया की इसी समय यज्ञ का विध्वंस कर दो, यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो और ऋषि-मुनियों के आश्रम नष्ट कर दो l राजकुमार की आज्ञा पालन के लिए आगे बढे उमरावों को देखकर ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब निष्प्राण बन जाओ l श्राप देते ही राजकुवर सहित 72 उमराव निष्प्राण, पत्थरवत बन गए l जब यह समाचार राजा खड्गलसेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए l राजा के साथ उनकी 8 रानिया सती हुई l

राजकुवर की कुवरानी चन्द्रावती 72 उमरावों की पत्नियों के सहित रुदन करती हुई उन्ही ऋषियो की शरण में गई जिन्होंने इनके पतियों को श्राप दिया था l ये उन ऋषियो के चरणों में गिर पड़ी और और क्षमायाचना करते हुए श्राप वापस लेने की विनती की तब ऋषियो ने उषाप दिया की- जब देवी पार्वती के कहने पर भगवान महेश्वर इनमें प्राणशक्ति प्रवाहित करेंगे तब ये पुनः जीवित व शुद्ध बुद्धि हो जायेंगे l महेश-पार्वती के शीघ्र प्रसन्नता का उपाय पूछने पर ऋषियों ने कहा की- यहाँ निकट ही एक गुफा है, वहाँ जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र "ॐ नमो महेश्वराय" का जाप करो l राजकुवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और मंत्र तपस्या में लीन हो गई l उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महेशजी देवी पार्वती के साथ वहा आये l पार्वती ने इन जडत्व मूर्तियों को देखा और अपनी अंतर्दृष्टि से इसके बारे में जान लिया l महेश-पार्वती ने मंत्रजाप में लीन राजकुवरानी एवं सभी उमराओं की स्त्रियों के सम्मुख आकर कहा की- तुम्हारी तपस्या देखकर हम अति प्रसन्न है और तुम्हें वरदान देने के लिए आयें हैं, वर मांगो। इस पर राजकुवरानी ने देवी पार्वती से वर मांगा की- हम सभी के पति ऋषियों के श्राप से निष्प्राण हो गए है अतः आप भगवान महेशजी कहकर इनका श्रापमोचन करवायें l पार्वती ने 'तथास्तु' कहा और भगवान महेशजी से प्रार्थना की और फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन और सभी 72 उमरावों में प्राणशक्ति प्रवाहित करके उन्हें चेतन (जीवित) कर दिया l

चेतन अवस्था में आते ही सभीने महेश-पार्वती का वंदन किया और अपने अपराध पर क्षमा याचना की l इसपर भगवान महेश ने कहा की- अपने क्षत्रियत्व के मद में तुमने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है l तुमसे यज्ञ में बाधा डालने का पाप हुवा है, इसके प्रायश्चित के लिए अपने-अपने हथियारों को लेकर सूर्यकुंड में स्नान करो l ऐसा करते ही सभी उमरावों के हथियार पानी में गल गए l स्नान करने के उपरान्त सभी भगवान महेश-पार्वती की जयजयकार करने लगे l फिर भगवान महेशजी ने कहा की- सूर्यकुंड में स्नान करने से तुम्हारे सभी पापों का प्रायश्चित हो गया है तथा तुम्हारा क्षत्रितत्व एवं पूर्व कर्म भी नष्ट हो गये है l यह तुम्हारा नया जीवन है इसलिए अब तुम्हारा नया वंशलेगा l तुम्हारे वंशपर हमारी छाप रहेगी l देवी महेश्वरी (पार्वती) के द्वारा तुम्हारी पत्नियों को दिए वरदान के कारन तुम्हे नया जीवन मिला है इसलिए तुम्हे 'माहेश्वरी (Maheshwari)' के नाम से जाना जायेगा l तुम हमारी (महेश-पार्वती) संतान की तरह माने जाओगे l तुम दिव्य गुणों को धारण करनेवाले होंगे l द्यूत, मद्यपान और परस्त्रीगमन इन त्रिदोषों से मुक्त होंगे l अब तुम्हारे लिए युद्धकर्म (जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए योद्धा/सैनिक का कार्य करना) निषिद्ध (वर्जित) है l अब तुम अपने परिवार के जीवनयापन/उदरनिर्वाह के लिए वाणिज्य कर्म करोगे, तुम इसमें खूब फुलोगे-फलोगे l जगत में धन-सम्पदा के धनि के रूप में तुम्हारी पहचान होगी l धनि और दानी के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी। श्रेष्ठ कहलावोगे (*आगे चलकर श्रेष्ठ शब्द का अपभ्रंश होकर 'सेठ' कहा जाने लगा) l तुम जो धन-अन्न-धान्य दान करेंगे उसे माताभाग (माता का भाग) कहा जायेगा, इससे तुम्हे बरकत रहेगी l

अब राजकुवर और उमरावों में स्त्रियों (पत्नियोंको) को स्वीकार करने को लेकर असमंजस दिखाई दिया l उन्होंने कहा की- हमारा नया जन्म हुवा है, हम तो “माहेश्वरी’’ बन गए है पर ये अभी क्षत्रानिया है l हम इन्हें कैसे स्वीकार करे l तब माता पार्वती ने कहा तुम सभी स्त्री-पुरुष हमारी (महेश-पार्वती) चार बार परिक्रमा करो, जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जायेगा l इसपर राजकुवरानी ने पार्वती से कहा की- माते, पहले तो हमारे पति क्षत्रिय थे, हथियारबन्द थे तो हमारी और हमारे मान की रक्षा करते थे अब हमारी और हमारे मान की रक्षा ये कैसे करेंगे तब पार्वती ने सभी को दिव्य कट्यार (कटार) दी और कहाँ की अब तुम्हारा कर्म युद्ध करना नहीं बल्कि वाणिज्य कार्य (व्यापार-उद्यम) करना है लेकिन अपने स्त्रियों की और मान की रक्षा के लिए सदैव 'कट्यार' (कटार) को धारण करेंगे l मै शक्ति स्वयं इसमे बिराजमान रहूंगी l तब सब ने महेश-पार्वति की चार बार परिक्रमा की तो जो जिसकी पत्नी है उनका अपनेआप गठबंधन हो गया (एक-दो जगह पर, 13 स्त्रियों ने भी कट्यार धारण करके गठबंधन की परिक्रमा करने का उल्लेख मिलता है) l

इसके बाद सभी ने सपत्नीक महेश-पार्वती को प्रणाम किया l अपने नए जीवन के प्रति चिंतित, आशंकित माहेश्वरीयों को देखकर पार्वती उन्हें भयमुक्त करने के लिए यह कहकर की- “सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् l” ‘समस्त जगत मैं ही हूँ l इस सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी मैं थीं। मैं ही इस सृष्टि का आदि स्रोत हूँ। मैं सनातन हूँ l मैं ही परब्रह्म, परम-ज्योति, प्रणव-रूपिणी तथा युगल रूप धारिणी हूं। मैं नित्य स्वरूपा एवं कार्य कारण रूपिणी हूं। मैं ही सब कुछ हूं। मुझ से अलग किसी का वजूद ही नहीं है। मेरे किये से ही सबकुछ होता है इसलिए तुम सब अपने मन को आशंकाओं से मुक्त कर दो’ ऐसा कहकर देवी पार्वती नें सभी को दिव्यदृष्टि दी और अपने आदिशक्ति स्वरुप का दर्शन कराया l दिखाया की शिव ही शक्ति है और शक्ति ही शिव है l ‘शिवस्याभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरेशिवः।’ शक्ति शिव में निहित है, शिव शक्ति में निहित हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव और शक्ति अर्थात महाकाल और महाकाली, महेश्वर और महेश्वरी, महादेव और महादेवी, महेश और पार्वती तो एक ही है, जो दो अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करते है। महेश-पार्वती के सामरस्य से ही यह सृष्टि संभव हुई। आदिशक्ति ने पलभर में अगणित (जिसको गिनना असंभव हो) ब्रह्मांडों का दर्शन करा दिया जिसमें वह समस्त दिखा जो मनुष्य नें देखा या सुना हुवा है और वह भी दिखा जिसे मानव ने ना सुना है, ना देखा है, न ही कभी देख पाएगा और ना उनका वर्णन ही कर पाएगा । तत्पश्चात अर्धनरनारीश्वर स्वरुप में शरीर के आधे भाग में महेश (शिव) और आधे भाग में पार्वती (शक्ति) का रूप दिखाकर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति (पालन), परिवर्तन और लय (संहार); महेश (शिव) एवं पार्वती (शक्ति) अर्थात (संकल्पशक्ति और क्रियाशक्ति) के अधीन होनेका बोध कराया l चामुण्डा स्वरुप का दर्शन कराया जिसमें दिखाया की- “महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी” देवी पार्वती की ही तीन शक्तियां है जो बलशक्ति, ज्ञानशक्ति और ऐश्वर्यशक्ति (धनशक्ति) के रूप में अर्थात इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में कार्य करती है जिसके फलस्वरूप सृष्टि के सञ्चालन का कार्य संपन्न हो रहा है l महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी इन्ही त्रयीशक्तियों का सम्मिलित/एकत्रित रूप है चामुण्डा जो स्वयं आदिशक्ति देवी पार्वती ही है l आगे महाकाली के अंशशक्तियों नवदुर्गा और दसमहाविद्या तथा महालक्ष्मी की अंशशक्तियों अष्टलक्ष्मियों का दर्शन कराया l अंततः यह सभी शक्तियां मूल शक्ति (आदिशक्ति) देवी पार्वती में समाहित हो गई l तब आश्चर्यचकित, रोमांचित, भावविभोर होकर सभी ने सिर नवाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए कहा की- हे माते, आप ही जगतजननी हो, जगतमाता हो l आपकी महिमा अनंत है l आपके इस आदिशक्ति रूप को देखकर हमारा मन सभी चिन्ताओं, आशंकाओं से मुक्त हो गया है l हम अपने भीतर दिव्य चेतना, दिव्य ऊर्जा और प्रसन्नता का अनुभव कर रहे है l हे माते, आपकी जय हो। हमपर आपकी कृपा निरंतर बरसती रहे l देवी ने कहा, मेरा जो आदिशक्ति रूप तुमने देखा है उसे देख पाना अत्यंत दुर्लभ है l केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरे इस आदिशक्ति रूप का साक्षात दर्शन किया जा सकता है l जो मनुष्य अपने सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को, मनोकामनाओं से मुक्त रहकर केवल मेरे प्रति समर्पित करता है, मेरे भक्ति में स्थित रहता है वह मनुष्य निश्चित रूप से मेरी कृपा को प्राप्त करता है l वह मनुष्य निश्चित रूप से परम आनंद को, परम सुख को प्राप्त करता है l

फिर भगवान महेशजी ने सुजानसेन को कहा की अब तुम इनकी वंशावली रखने का कार्य करोगे, तुम्हे जागा कहा जायेगा l तुम माहेश्वरीयों के वंश की जानकारी रखोंगे, विवाह-संबन्ध जोड़ने में मदत करोगे और ये हर समय, यथा शक्ति द्रव्य देकर तुम्हारी मदत करेंगे l तत्पश्चात ऋषियों ने महेश-पार्वती को हाथ जोड़कर वंदन किया और भगवान महेशजी से कहा की- प्रभु इन्होने हमारे यज्ञ को विध्वंस किया और आपने इन्हें श्राप मोचन (श्राप से मुक्त) कर दिया l इस पर भगवान महेशजी ने ऋषियो से कहा- आपको इनका (माहेश्वरीयों का) गुरुपद देता हूँ l आजसे आप माहेश्वरीयोंके गुरु हो l आपको 'गुरुमहाराज' के नाम से जाना जायेगा l आपका दायित्व है की आप इन सबको धर्म के मार्गपर चलनेका मार्गदर्शन करते रहेंगे l भगवान महेशजी ने सभी माहेश्वरीयों को उपदेश दिया कि आज से यह ऋषि तुम्हारे गुरु है l आप इनके द्वारा अनुशाषित होंगे l एक बार देवी पार्वती के जिज्ञासापूर्ण अनुरोध पर मैंने पार्वती को जो बताया था वह पुनः तुम्हे बताता हूँ-

गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः l
गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ll
अर्थात "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है | गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ l गुरु और गुरुतत्व को बताते हुए महेशजी ने कहा की, गुरु मात्र कोई व्यक्ति नहीं है अपितु गुरुत्व (गुरु-तत्व) तो व्यक्ति के ज्ञान में समाहित है। उसे वैभव, ऐश्वर्य, सौंदर्य अथवा आयु से नापा नहीं जा सकता। गुरु अंगुली पकड़कर नहीं चलाता, गुरु अपने ज्ञान से शिष्य का मार्ग प्रकाशित करता है। चलना शिष्य को ही पड़ता है। जैसे मै और पार्वती अभिन्न है वैसे ही मै और गुरुत्व (गुरु-तत्व) अभिन्न है l इस तरह से गुरु व गुरुतत्व के बारे में बताने के पश्चात महेश भगवान पार्वतीजी सहित वहां से अंतर्ध्यान हो गये l

उमरावों के चेतन होने के शुभ समाचार को जानकर उनके सन्तानादि परिजन भी वहां पर आ गए l पूरा वृतांत सुनने के बाद ऋषियों के कहने पर उन सभी ने सूर्यकुंड में स्नान किया l ऋषियों ने,
“स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु,
विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु l
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु, 
वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु ll”
(अर्थ - आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें | विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें l ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति बनी रहे l आपका वंश सदैव तेजस्वी एवं दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे।) इस मंत्र का उच्चारण करते हुए सभी के हाथों में रक्षासूत्र (कलावा) बांधा और उज्वल भविष्य और कल्याण की कामना करते हुए आशीर्वाद दिए l

आसन मघासु मुनय: शासति युधिष्ठिरे नृपते l
सूर्यस्थाने महेशकृपया जाता माहेश्वरी समुत्पत्तिः ll
अर्थ- जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र में थे, युधिष्ठिर राजा शासन करता था l सूर्य के स्थान पर अर्थात राजस्थान प्रान्त के लोहार्गल में (लोहार्गल- जहाँ सूर्य अपनी पत्नी छाया के साथ निवास करते है, वह स्थान जो की माहेश्वरीयों का वंशोत्पत्ति स्थान है), भगवान महेशजी की कृपा (वरदान) से l कृपया - कृपा से, माहेश्वरी उत्पत्ति हुई (यह दिन युधिष्टिर संवत 9 जेष्ट शुक्ल नवमी का दिन था l तभी से माहेश्वरी समाज 'जेष्ट शुक्ल नवमी' को “महेश नवमी’’ के नाम से, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति दिन (माहेश्वरी स्थापना दिन) के रूप में बहुत धूम धाम से मनाता है l “महेश नवमी” माहेश्वरी समाज का सबसे बड़ा त्योंहार है, सबसे बड़ा पर्व है) l

(1.2) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति से सम्बंधित सन्दर्भ एवं तत्थ्य

1) वर्तमान राजस्थान के लिए पहले किसी एक नाम का प्रयोग नहीं मिलता है। इसके भिन्न-भिन्न क्षेत्र अलग-अलग नामां से जाने जाते थे ऐसा महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रतीत होता है l वर्तमान अलवर एवं जयपुर तथा कुछ हिस्सा भरतपुर का भी इसमें शामिल है, 'मत्स्य राज्य' कहलाता था l मत्स्य राज्य की राजधानी विराटनगर थी जिसको इस समय बैराठ कहते है l यह वही विराट नगर है जहाँ महाभारत काल में पांड्वो ने अपना अज्ञातवास व्यतीत किया था। माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में आया हुवा 'मत्स्यराज' का उल्लेख मत्स के राजा के लिए किया गया हैl

2) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में खण्डेलपुर राज्य का उल्लेख आता है l महाभारतकाल में लगभग 260 जनपद (राज्य) होने का उल्लेख भारत के प्राचीन इतिहास में मिलता है l इनमें से जो बड़े और मुख्य जनपद थे इन्हे महा-जनपद कहा जाता था l कुरु, मत्स्य, गांधार आदि 16 महा-जनपदों का उल्लेख महाभारत में मिलता है l इनके अलावा जो छोटे जनपद थे, उनमें से कुछ जनपद तो 5 गावों के भी थे तो कुछेक जनपद मात्र एक गांव के भी होने की बात कही गयी है l इससे प्रतीत होता है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित 'खण्डेलपुर' जनपद भी इन जनपदों में से एक रहा होगा l

राजस्थान के प्राचीन इतिहास की यह जानकारी की- ‘खंडेला’ राजस्थान स्थित एक प्राचीन स्थान है जो सीकर से 28 मील पर स्थित है, इसका प्राचीन नाम खंडिल्ल और खंडेलपुर था। यह जानकारी खण्डेलपुर के प्राचीनता की और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है l

खंडेला से तीसरी शती ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है और यहाँ अनेक प्राचीन मंदिरों के ध्वंसावशेष हैं। “खंडेला सातवीं शती ई. तक शैवमत (शिव अर्थात भगवान महेश को माननेवाले जनसमूह) का एक मुख्य केंद्र था” , यह जानकारी खण्डेलपुर और उसके महाभारतकालीन अस्तित्व की पुष्टि करती है और यंहा पर सातवीं शती तक शिव (महेश) को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है।

खंडेला में आदित्यनाग नामक राजा ने 644 ई. में अर्धनारीश्वर का एक मंदिर बनवाया था। इस मंदिर के ध्वंसावशेष से एक नया मंदिर बना है जो वर्तमान समय में खंडलेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। 644 ई. में इस क्षेत्र में शिवलिंग या शिवपिंड की बजाय मूर्ति के रूप में अर्धनारीश्वर का मंदिर बनवाया जाना इस बात की पुष्टि करता है की उस समय इस क्षेत्र में ‘शिव’ की मूर्ति स्वरुप में पूजा करनेवालों का प्राबल्य था (हिमाचल के करसोगा घाटी के एक छोटे से ममेल नामक गांव में भी लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक पुराना महाभारत-कालीन भगवान महादेव-पार्वती का एक मंदिर है। स्थानीय मान्यताओं के मुताबिक़ पांडवों ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय इसी स्थान पर बिताया था। यह विश्व का सबसे प्राचीन इकलौता ऐसा मंदिर हैं, जहाँ पर भगवान महेश्वर और माता गौरा पार्वती की युगल मूर्ति स्थापित हैं, जिनके बारे में जनश्रुति है कि इनकी स्थापना भी पांडव काल में स्वयं पांचों पांडव भाइयों के द्वारा ही की गई थी। यह स्थान (भौगोलिक स्थान) और काल (समय) माहेश्वरी उत्पत्ति के स्थान और समय से मिलता है) l मान्यता के अनुसार माहेश्वरी समाज में माहेश्वरी उत्पत्ति के समय से ही महेश-पार्वती को मूर्ति स्वरुप में पूजने की परंपरा है l तो यह बात खंडेला में महेश को माननेवाला समाज अर्थात माहेश्वरी समाज के होने की भी पुष्टि करती है।

महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह (मूर्ति) रूप में ही रह गए अत: उनके विग्रहों (मूर्तियों) की पूजा की जाती है। तथ्य बताते है की कलियुग के प्रारम्भ होने तक शिवाय 'शिव' के किसी भी अन्य देवी-देवता के विग्रह (मूर्ति) की ना स्थापना की जाती थी और ना ही पूजा l शिवलिंग के स्थापना के तथा देवी के शक्तिपीठों के तथ्य जरूर मिलते है l जब माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई तब माहेश्वरी जिस खण्डेलपुर में रहते थे उसी खण्डेलपुर में तीसरी शती ई. में स्थापित शिव की शारीरिक स्वरुपवाली मूर्ति जो की 'अर्धनारीश्वर' की थी का मिलना इस बात को स्पष्ट करता है की माहेश्वरीयों में महेश-पार्वती की शारीरिक स्वरुपवाली मूर्ति की पूजा की जाती थी l संभवतः माहेश्वरी उत्पत्ति के समय पार्वती के दिखाए आदिशक्ति स्वरुप को ही ध्यान में रखकर यह मूर्ति बनाई गई हो l इसी खण्डेला में, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के कुछ ही समय उपरांत स्थापित देवी चामुण्डा का मंदिर भी है l महाभारत-कालीन यह मंदिर आज भी विद्यमान है और माहेश्वरीयों की माँ चामुंडा के प्रति भक्तिगाथा को बताते हुए अतीत की यादो को ताज़ा करता है l

3) माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कथा में वर्णित खंडेला गांव पुरातन समय से लेकर अभीतक गोटे के काम के लिए जाना जाता हैं। भले ही आज के समय में माहेश्वरी समाज की स्त्रियों के वस्त्रों-परिधानों पर गोटे के काम का चलन कम हुवा है लेकिन पुराने समय में स्त्रियों के वस्त्रों-परिधानों पर परंपरागत रूप से गोटे के काम का काफी प्रचलन रहा है l कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बताया है की जब वह कपड़ा पुराना हो जाता था तो उस पर से गोटा निकालकर जलाया जाता था तो उसमें से सोना और चांदी निकलती थी l यह बात भी माहेश्वरीयों के पूर्वज खंडेला के वासी (रहनेवाले) होने की पुष्टि करती है, साथ ही इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी समाज धनि और संपन्न भी था l

4) कृष्ण-शिव (महेश) संग्राम- शिव ने राजा बलि के पुत्र बाणासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर और बाणासुर द्वारा वर मांगने पर उसे वरदान दिया था की शिव स्वयं बाणासुर की रक्षा का दायित्व वहन करेंगे l बाणासुर को दिए वरदान के कारन भगवान शिव (महेश) ने, कृष्ण-बाणासुर युद्ध में बाणासुर के पक्ष में उतरकर बाणासुर को बचाने के लिए कृष्ण के साथ युद्ध किया था l इस प्रसंग में शिवपत्नी पार्वती का बाणासुर को बचाने के लिए कृष्ण और बाणासुर के मध्य में खड़ी होने का उल्लेख भी मिलता है l यह प्रसंग पुराणों में 'कृष्ण-शिव संग्राम' के नाम से जाना जाता है l इस प्रसंग में एक जगह वर्णन आता है की- "बाणासुर की कन्या उषा ने वन में शिव-पार्वती को रमण करते देखा तो वह भी कामविमोहित होकर प्रिय-मिलन की इच्छा करने लगी" । इन बातों से यह सिद्ध होता है की कृष्ण के समय में, महाभारत काल में भगवान “महेश और पार्वती” साकार रूप में पृथ्वी पर आया करते थे l माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति कथा के अनुसार- "देवी पार्वती द्वारा भगवान महेश (शिव) को बिनती करने पर भगवान महेश ने निष्प्राण पड़े उमरावों को जीवित (चेतन) किया था" l इससे इस बात को पुष्टि मिलती है की माहेश्वरी उत्पत्ति कथा यह कपोलकल्पित कहानी नहीं है बल्कि प्रमाणित इतिहास है l यथार्थ में ही माहेश्वरी समाज के संस्थापक/प्रवर्तक महेश-पार्वती है l स्वयं महेश-पार्वती द्वारा हमारे (माहेश्वरी) समाज की उत्पत्ति होना हमारे समाज के लिए गौरव की बात है l

5) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में सूर्यकुंड का उल्लेख आता है जो लोहार्गल (राजस्थान) में स्थित है l इसी कुण्ड और स्थान का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है- महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद भी पांडव अपने पूर्वजों, सगे-संबंधियों की हत्या के पाप से चिंतित थे। इस पाप से मुक्ति दिलाने के लिए कृष्ण ने कई उपाय बताए। इनमें एक उपाय ऐसा था जो काफी चौंकाने वाला था। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि पाण्डव तीर्थयात्रा पर जाएं। हर तीर्थ पर पाण्डव अपने हथियारों को तीर्थ के जल से धोएं। जिस स्थान पर भीम की गदा गलकर पानी बन जाए समझ लेना यह मुक्ति स्थान है। जिस तीर्थ स्थल में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त हो जायेगा l भीम की गदा का पानी में घुल जाना संकेत होगा कि तुम्हारे पाप धुल गए। पाण्डव सालों साल तीर्थ यात्रा करते रहे। हर तीर्थ स्थान पर हथियारों को धोया लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी। तीर्थ यात्रा करते करते पांडव अरावली पर्वत पर स्थित सूर्यकुंड पर पहुंचे। यहां पहुंचकर पाण्डवों ने सूर्यकुंड में अपने हथियारों को धोया और चमत्कार हो गया। भीम की गदा के साथ-साथ युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव के हथियार भी गलकर पानी हो गए। इसके बाद इसी स्थान पर महेश-पार्वती की आराधना कर पांडवों ने मोक्ष की प्राप्ति की। यह वही स्थान है जहाँ इस घटना के कुछ समय पहले महेश-पार्वती के वरदान से माहेश्वरी वंशोत्पत्ति हुई थी l यह स्थान राजस्थान के झुंझुनू जिले में स्थित है और ‘तीर्थराज लोहार्गल’ के नाम से विश्व प्रसिद्ध है।

6) कहीं कही पर उल्लेख मिलता है की सूर्यकुंड के जल में स्नान करने के पश्चात माहेश्वरी बनने के कारन, माहेश्वरीयों को जलवंश का (जलवंशी) कहा गया l जल को पानी भी कहा जाता है इसलिए तत्कालीन स्थानिक बोलीभाषा में माहेश्वरीयों को पानिक कहा गया l आगे चलकर पानिक का अपभ्रंश होकर पणिक कहा जाने लगा l भारत के प्राचीन इतिहास में व्यापारियों तथा व्यापारियों के संघ (समूह) को 'पणिक' कहे जाने के उल्लेख बहुतायत में मिलते है l पणिक को सामान्यतः सौदागरों (व्यापारियों) के रूप में जाना जाता है l कहा गया है की- पणिक कुशल व्यापारी होते थे l आगे चलकर पणिक से बनिक, बनिक से बनिया कहे जाने लगे l कुछ इतिहासकारों एवं भाषाविदों का मानना है की इस तरह से, अप्रत्यक्ष रूप से माहेश्वरी समाज का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में हुवा है l मध्यकाल में माहेश्वरी शब्द का अपभ्रंश होकर कहीं कहीं पर माहेश्वरीयों को 'मेसरी' भी कहा जाता था l मुगलकाल और उसके बाद माहेश्वरीयों को मारवाड़ी भी कहा जाने लगा लेकिन मारवाड़ी यह शब्द मात्र माहेश्वरीयों के लिए ही नहीं बल्कि राजस्थान से जो लोग, विशेषतः व्यापारी समाज के लोग अन्य प्रदेशों में गये, उन सभी के लिए प्रयुक्त किया गया है l इसीके चलते जैन, अग्रवाल आदि समाज के लोगों को भी मारवाड़ी कहा जाने लगा l यद्यपि पूरा राजस्थान मारवाड़ नहीं है, मारवाड़ राजस्थान प्रान्त का एक क्षेत्र है। वर्तमान समय में माहेश्वरी समाज-संगठनों के प्रयास से, माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय भगवान महेशजी द्वारा दिए गए नाम "माहेश्वरी" इसी नाम का प्रयोग करने को बढ़ावा मिला है l

चूँकि बौद्ध धर्म की तरह 'माहेश्वरी' नाम का प्रत्यक्ष उल्लेख प्राचीन इतिहास में नहीं मिलता है तो इसका एक कारन यह हो सकता है की पांच-छे सौ (500-600) लोगों के छोटे से समूह के किये इस बदलाव को बड़ी घटना ना मानते हुए महत्त्व नहीं दिया गया हो, इसका उल्लेख ना हुवा हो l प्राचीन इतिहास में 'माहेश्वरी' का उल्लेख नहीं मिलने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है की तत्कालीन समय में, चार वर्णों पर आधारित समाजव्यवस्था में क्षत्रिय और ब्राम्हण वर्ण का वर्चस्व हुवा करता था तो क्षत्रिय वर्ण को छोड़कर नया वंश बने माहेश्वरीयों को उन्होंने अनजाने में या जानबूझकर अनदेखा किया हो l देखने में आता है की तत्कालीन समय में मुख्य रूप से राजवंशों का और कुछ हद तक ऋषि परंपरा का ही इतिहास लिखने की परंपरा थी l वैश्यों और क्षुद्रों का इतिहास नहीं लिखा जाता था l तत्कालीन समय के ग्रंथों में वाणिज्य अर्थात वैश्य कर्म में प्रवृत माहेश्वरीयों के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलने का एक कारन यह भी हो सकता है l

7) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में 6 ऋषियों का और उनके नामों का उल्लेख मिलता है जिन्हे भगवान महेशजी ने माहेश्वरी समाज का गुरु बनाया था l इसी क्रम में आगे एक और ऋषि को गुरु पद दिया गया जिससे माहेश्वरी गुरुओं की संख्या 7 हो गई l महाभारत में उल्लेख मिलता है की- “महर्षि पराशर ने महाराजा युधिष्ठिर को ‘शिव-महिमा’ के विषय में अपना अनुभव बताया।” महाभारत तथा तत्कालीन ग्रंथों में कई जगहों पर पराशर, भरद्वाज आदि ऋषियों का नामोल्लेख मिलता है जिससे इस बात की पुष्टि होती है की यह ऋषि (माहेश्वरी गुरु) महाभारतकालीन है, और इस सन्दर्भ से इस बात की भी पुष्टि होती है की माहेश्वरी वंशोत्पत्ती महाभारतकाल में हुई है l

(1.3) उत्पत्ति कथा के आधारपर चल रही परम्पराएँ

1) माहेश्वरी उत्पत्ति कथा के सन्दर्भ के अनुसार ही मंगल कारज (विवाह) में बिन्दराजा मोड़ (मान) और कट्यार (कटार) धारण करके विवाह की विधियां संपन्न करता है तथा 'महेश-पार्वती' की तस्बीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार परिक्रमा करता है, इसे 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) कहा जाता है l माहेश्वरी वंशोत्पत्ति की वह बात याद रहे इसलिए चार फेरे बाहर के लिए जाते है (वर्तमान समय में 'महेश-पार्वती' की तसबीर के बजाय मामा फेरा के नाम से चार फेरे लेने का रिवाज भी कई बार देखा जाता है लेकिन यह अनुचित है l सही परंपरा का पालन करते हुए 'महेश-पार्वती' की तसबीर को विधिपूर्वक स्थापन करके उनकी चार बार परिक्रमा करके ही यह विधि संपन्न की जानी चाहिए) l विवाह की विधि में 'बारला फेरा' (बाहर के फेरे) लेने की विधि मात्र माहेश्वरी समाज में ही है l इस विधि का सम्बन्ध माहेश्वरी वंशोत्पत्ति से है (देखें, माहेश्वरी उत्पत्ति कथा) जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी, परंपरागत रूप से माहेश्वरी समाज मनाता आया है l अन्य किसी भी समाज में यह विधि (बारला फेरा/बाहर के फेरे) नहीं है l

2) अन्य एक परंपरा के अनुसार, सगाई में लड़की का पिता लडके को मोड़ और कट्यार भेंट देता है इसलिए की ये बात याद रहे- "अब मेरे बेटीकी और उसके मान की रक्षा तुम्हे करनी है" l बिंदराजा को विवाह की विधि में वही मोड़ और कट्यार धारण करनी होती है (वर्तमान समय में इस परंपरा/विधि को भी लगभग गलत तरीके से निभाया जा रहा है l विवाह के विधि में धारण करने के लिए एक या दो दिन के लिए कट्यार किरायेपर लायी जा रही है l यह मूल विधि के साथ की जा रही अक्षम्य छेड़छाड़ है जो की गलत है l इस विधि के मूल भावना को समझते हुए इसे मूल या पुरानी परंपरा से अनुसार ही निभाया जाना चाहिए) l

3) माहेश्वरीयों को महेश-पार्वती ने साकार रूप में और वह भी पारिवारिक रूप में (सपत्नीक) दर्शन दिए थे इसीलिए माहेश्वरीयों में "महेश-पार्वती" की साकार स्वरुप में (मूर्ति रूप में) भक्ति-पूजा-आराधना की जाती है l अकेले महेशजी की पूजा नहीं की जाती है बल्कि एकसाथ महेश-पार्वती की भक्ति-पूजा-आराधना की परंपरा रही है l इसका तात्पर्य यह है की माहेश्वरीयों में शिवलिंग या शिवपिंड के बजाय मूर्ति स्वरुप में पूजने की परंपरा रही है l

जाने-अनजाने में कुछ लोगों द्वारा यह प्रचारित किया गया की महादेव की मूर्ति पूजा वर्जित है लेकिन यह सत्य नहीं है l शास्त्रों के अनुसार शिव ही एकमात्र देव है जो साकार और निराकार दोनों स्वरूपों में विराजित है और दोनों ही स्वरूपों में पूजनीय है l शिवलिंग और शिवपिंड शिव के निराकार स्वरुप का प्रतिक माने जाते है और शारीरिक रचना दर्शाती मूर्ति साकार स्वरुप का प्रतिक है l शिव के निराकार स्वरुप का प्रतिक होने के कारन शिवलिंग और शिवपिंड कितना भी खंडित होने पर भी पूजा जा सकता है लेकिन शिव-मूर्ति के खंडित होनेपर वह पूजने के लिए वर्जित है; बस यही एकमात्र अंतर है l

आमतौर पर भगवान शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में की जाती है लेकिन भगवान महेश (शिव) की मूर्ति पूजन का भी अपना ही एक महत्व है। श्रीलिंग महापुराण में भगवान शिव की विभिन्न मूर्तियों के पूजन के बारे में बताया गया है। जैसे की, कार्तिकेय के साथ भगवान शिव-पार्वती की मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, मनुष्य को सुख-सुविधा की सभी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, सुख मिलता है। भगवान शिव की अर्द्धनारीश्वर मूर्ति की पूजा करने से अच्छी पत्नी और सुखी वैवाहिक जीवन की प्राप्ति होती है। माता पार्वती और भगवान शिव की बैल पर बैठी हुई मूर्ति की पूजा करने से, संतान पाने की इच्छा पूरी होती है। जो मनुष्य उपदेश देने वाली स्थिति में बैठे भगवान शिव की मूर्ति की पूजा करता है, उसे विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है। नन्दी और माता पार्वती के साथ सभी गणों से घिरे हुए भगवान शिव की ऐसी मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य को मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।

शास्त्रानुसार शिव के निराकार स्वरुप (शिवलिंग या शिवपिंड) की पूजा-भक्ति करने से सांसारिक सुखों की नहीं बल्कि मात्र मोक्ष की प्राप्ति होती है इसी कारन से सांसारिक मोहमाया से दूर रहनेवाले साधु-सन्यासी शिवलिंग या शिवपिंड की पूजा-आराधना करते है l सांसारिक, भौतिक सुखों की चाह रखनेवालों तथा गृहस्थियों को शिव के साकार स्वरुप अर्थात मूर्ति की पूजा-आराधना करना ही उचित है जिससे सांसारिक और भौतिक सुखों (धन-धान्य-ऐश्वर्य आदि) के साथ ही अंत में मोक्ष (शिवधाम) भी प्राप्त होता है l मोक्षप्राप्ति की इच्छा से की जानेवाली पूजा-साधना में बेलपत्र चढाने की महिमा है तो सांसारिक और भौतिक सुखों की चाह से की जानेवाली पूजा में सोनपत्र (सोनपत्ता/आपटा पर्ण) चढाने का विधान है l धन-धान्यादि ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु गणेशजी को भी सोनपत्र चढाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है l

4) प्राचीनकाल में शुभ प्रसंगों में तथा प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन गुरु अपने शिष्यों के हाथ पर, पुजारी और पुरोहित अपने यजमानों के हाथ पर एक सूत्र बांधते थे जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी कहा जाने लगा। वर्तमान समय में भी रक्षासूत्र बांधने की इस परंपरा का पालन हो रहा है l आम तौर पर यह रक्षा सूत्र बांधते हुए ब्राम्हण "येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।" यह मंत्र कहते है जिसका अर्थ है- "दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।" लेकिन तत्थ्य बताते है की माहेश्वरी समाज में रक्षासूत्र बांधते समय जो मंत्र कहा जाता था वह है-
स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु,
विद्याविवेककृतिकौशलसिद्धिरस्तु l
ऐश्वर्यमस्तु विजयोऽस्तु गुरुभक्ति रस्तु, 
वंशे सदैव भवतां हि सुदिव्यमस्तु ll
(अर्थ - आप सदैव आनंद से, कुशल से रहे तथा दीर्घ आयु प्राप्त करें l विद्या, विवेक तथा कार्यकुशलता में सिद्धि प्राप्त करें l ऐश्वर्य व सफलता को प्राप्त करें तथा गुरु भक्ति भी बनी रहे l आपका वंश सदैव दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बना रहे।) इसका सन्दर्भ भी माहेश्वरी उत्पत्ति कथा से है l माहेश्वरी उत्पत्ति कथा में वर्णित कथानुसार, निष्प्राण पड़े हुए उमरावों में प्राण प्रवाहित करने और उन्हें उपदेश देने के बाद महेश-पार्वती अंतर्ध्यान हो गये l उसके पश्चात ऋषियों ने सभी को "स्वत्यस्तु ते कुशल्मस्तु चिरयुरस्तु...." मंत्र कहते हुए रक्षासूत्र बांधा था l यह रक्षामंत्र भी मात्र माहेश्वरी समाज में ही प्रचलित था/है l गुरु परंपरा के ना रहने से तथा माहेश्वरी संस्कृति के प्रति समाज की अनास्था के कारन यह रक्षामंत्र लगभग विस्मृत हो चला है l

वर्तमान समय में, नवनिर्मित वास्तु की 'वास्तुशान्ति' पूजाविधि में इसी 'स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु....' मंत्र का प्रयोग (कुछ मामूली बदलावों के साथ) किया जा रहा है l इससे इतना तो प्रतीत होता ही है की यह मंत्र नवनिर्माण, नवनिर्मिति से सम्बंधित है l इससे माहेश्वरी वंशोत्पत्ति के समय गुरुओं द्वारा रक्षासूत्र बांधते समय इस मंत्र को कहे जाने के महात्म्य की, इस मंत्र के प्राचीनता की तथा इस मंत्र के माहेश्वरीयों से सम्बंधित होने की पुष्टि होती है l

- योगी प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी द्वारा लिखित पुस्तक "माहेश्वरी वंशोत्पत्ति एवं इतिहास" से साभार l